यादों के झरोखे में लोकसंस्कृति का पर्व चकचंदा, बुजुर्गों के जेहन में स्मृतियां रह गयीं शेष

सीवान:- बदलते दौर ने हमारे लोकजीवन में रची-बसी कुछ लोकसंस्कृति के पर्वों को लील लिया और जनमानस से ऐसे ओझल कर दिया कि उसकी यादें शेष रह गयीं,कसक बाकी रह गयीं। शिक्षकों को विद्यार्थियों के आभिभावकों से सीधे जोड़ने वाला लोकजीवन का पर्व चकचंदा लोकजीवन से गायब हो चुका है। अलबत्ता,60 वर्ष के ऊपर के लोगों के मन उसकी मीठी यादें आज भी ताजा हैं,जो उन्हें आज भी सालती हैं। विलुप्त-सी हो गयी चकचंदा की समृद्ध परंपरा को लेकर गांव-गंवई के बड़े-बुजुर्गो के मन मे इसको लेकर कसक है। उनकी स्मृतियों में सामाजिक सारोकार के पर्व चकचंदा की यादें शेष हैं। भले आज सरकार शिक्षकों को अभिभावकों से जोड़ने का अथक प्रयास कर मनोनुकूल सफलता नहीं हासिल कर सकी है। लेकिन आज से छह-दशक पूर्व स्वत:स्फूर्त एक ऐसी व्यवस्था बनी हुई थी,जिसमें शिक्षक सीधे-सीधे अभिभावकों के टच में था। समाज को विद्यालय से जोड़ने का अनूठा और अनुपम पर्व चकचंदा मनाने का रिवाज नहीं रहा। चकचंदा मनाने और गाने की समृद्ध परंपरा से समाज और विद्यालय अलग-थलग पड़ चुका है। बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि महज छह दशक पूर्व तक लोकजीवन में व्यवस्था कायम थी। बुजुर्गों का कहना है कि आज से दशकों पूर्व शिक्षकों ने आभिभावकों से जुड़ने की एक सशक्त व्यवस्था बना रखी थी,जो ‘चकचंदा’ के रुप में जाना जाता था.यह व्यवस्था दशकों तक कारगर रही। वहीं चकचंदा ने गुरु-शिष्य परंपरा को दशकों तक जीवंत रखा। भले आज भी भादो महीने की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चकचंदा मनाया जाता है। लेकिन इसका पुराना स्वरुप नहीं रहा है। अलबत्ता इस दिन श्रद्धालु भगवान गणेश की पूजा करते हैं। वह दौर चला गया, जब गुरुजी बच्चों के साथ गांवों का भ्रमण करते थे और गांवों में घूम-घूमकर बच्चे चकचंदा के गीत गाते थे। बानगी में यह मजाकिया चकचंदा -‘बबुआ हो बबुआ सिताब लाल बबुआ, अपना माई के कंगना मांग ले आव हो बबुआ’।
अभिभावकों के घरों तक पहुंचकर गुरुजी और उनके शिष्य चकचंदा मांगने जाते थे और लकड़ी का लकड़ेना बजाकर मनोहारी गाने गाते थे और मन ही मन अघाते थे।
वह कुछ और जमाना था ,जब भादो के महीने में चकचंदा को समारोह पूर्वक मनाया जाता था। भाद्रपद चतुर्थी से आरम्भ कर अगले दस दिनों यानी अनंत चतुर्दशी तक गांव के सभी घरों में जाकर विद्यार्थी गणेश वंदना गाते और चकचंदा के गीत गाकर चकचंदा मांगते थे। लोग गुरुदक्षिणा के रुप में पैसे, अनाज और वस्त्र आदि देते थे। समाजविद् कहते हैं कि ग्रामीण संस्कृति में परस्पर जीने की कला का उल्लासमय आयोजन नाम चकचंदा था। भादो के चौथ यानी गणेश चतुर्थी पर आयोजित होने वाला चकचंदा अब हमारी लोकसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा। गुरुजी और समाज के बीच भावनात्मक लगाव का प्रतीक चकचंदा विलुप्त हो गया है।
अलबत्ता, सरकारी स्कूलों में पढ़े लोगों के मन में चकचंदा की थोड़ी-बहुत सुनहरी यादें जरूर हैं। हमारे समाज के बड़े-बुजर्ग लोगों के दिलोदिमाग में चकचंदा की मधुर यादें आज भी रची-बसी हैं। साहित्यप्रेमी भगरासन यादव और शफी इमाम कहते हैं कि इस दौरान संसाधन भले कम थे। लेकिन बच्चों और अभिभावकों में श्रद्धा और उत्साह ज्यादा था। गुरु के प्रति श्रद्धा अगाध थी। धन नहीं मन के भाव परखे जाते थे। विद्यालय और उसमें होने वाले चकचंदा का जिक्र श्री यादव के मन को छह -सात दशक पहले धकेल देता है और पुरानी यादें ऐसे ताजा हो जाती हैं,जैसे चकचंदा कल गुजरा हुआ लोकसंस्कृति का पर्व हो।वे चहक उठते हैं,पुरानी यादों में खो जाते हैं। बचपन के किस्से और यादें उन्हें गुदगुदाने लगते हैं।
श्री यादव के संस्मरण से ये दो पंक्तियां सुनाते हैं और मन ही मन आह्लादित हो जाते हैं-“गुरुजी के देहला से धन नाही घटी, होई जईहें रउवो बड़ाई मोर बाबूजी”। श्री यादव कहते हैं कि हमारे जमाने भले संसाधन कम थे, लेकिन हौसले कम न थे। सामाजिक चिंतक पंडित सुरेश पांडेय बचपन की याद आते ही भावविभोर हो जाते हैं। कहते हैं कि वे दिन आज भी आंखों के सामने तैरने लगते हैं,जब हम बच्चे शिक्षकों के साथ लकड़ेना (वाद्ययंत्र) और झोला लेकर गांवों की ओर निकल जाते थे। कहते हैं क्या निष्कलुष बचपन था और क्या निश्छल दौर था। बच्चे घर-घर और गुरुजी द्वार-द्वार होते थे।श्री पांडेय के संस्मरण यज चकचंदा का गीत सुनते हैं-“चौदह बरिस बीत गईले रामचंद्र घरे अईनी, घरे-घरे बाजेला बधाई रे बलकवा।” वे कहते हैं कि बच्चों का शिक्षक के प्रति अटूट श्रद्धा थी और शिक्षकों में बच्चों के लिए वात्सल्य का भाव था। चकचंदा के बहाने शिक्षकों का बच्चों के अभिभावकों से सुखद और सकारात्मक मुलाकात होती थी। इसका दूरगामी प्रभाव भी था। भोजपुरी के साहित्यकार भगरासन यादव कहते हैं कि भादो की चौथ यानी गणेश चतुर्थी पर आयोजित होने वाला चकचंदा अब हमारी लोकसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा। गुरुजी और समाज के बीच भावनात्मक लगाव का प्रतीक था। अभिभावकों से शिक्षकों का सीधा संपर्क हो जाता है। बच्चों को ये बातें संज्ञान में रहती थी कि गुरुजी उनके माता-पिता को जानते हैं और उनकी शिकायत उनके अभिभावक तक सहजता से पहुंच जायेगी। श्री यादव कहते हैं कि गुरुजी के घर आने बच्चे आह्लादित हो जाते थे और आभिभावक गुरुजी के आगमन को अपना सौभाग्य समझते थे और गुरुजी का खूब आवभगत करते थे। भ्रमण के दौरान गुरुजी बच्चे की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन भी कर लेते थे। आज सरकार शिक्षकों को अभिभावकों से जोड़ने का हरसंभव प्रयास कर रही है।इसके तहत विद्यालय में हर शनिवार को पीटीएम यानी अभिभावक -शिक्षक संगोष्ठी आयोजित होती है। लेकिन जो व्यवस्था चकचंदा के बहाने कायम की गयी थी,वैसी व्यवस्था नहीं पनप पायी है। बहरहाल, बदलते दौर ने हमारे लोकजीवन से लोकसंस्कृति के पर्व चकचंदा को लील लिया है।

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